3-4 दिसंबर 2022 सारनाथ बैठक के लिए संक्षिप्त नोटः-
17-18 सितंबर 2022 को ग्वालियर की बैठक में जन राजनीति के तात्कालिक कार्यभार के बतौर 2024 लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ-भाजपा की विभाजनकारी दमन की राजनीति को चुनाव में शिकस्त देने पर आम राय बनी थी। यह भी तय हुआ था कि बदलाव की राजनीति का माहौल बनाना जरूरी है जिससे कि संघ-भाजपा को परास्त किया जा सके। बैठक ने 20 सूत्री कार्यक्रम और इस संदर्भ में दिये गए नोट को भी स्वीकार किया था। 10 अक्टूबर 2022 को दिल्ली में रोजगार के सवाल पर एक सम्मेलन भी हुआ और यह सम्मेलन अर्थशास्त्री अरूण कुमार के लेख की वजह से चर्चित भी रहा। उसी क्रम में 3-4 दिसंबर 2022 की यह बैठक हो रही है।
अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी और हिंदुत्व गठजोड़ की राजनीति का हमला और उसके विरोध का यह दौर है। जन राजनीति का कार्यभार भी इसके विरोध पर टिका हुआ है। आज के दौर की जन राजनीति को समझने के लिए सन 47 में मिली आजादी के बाद के राजनीति का संदर्भ लेना अप्रासंगिक नहीं है। कांग्रेस अमूमन बड़े पूंजी घरानों और भूस्वामियों के हितों की रक्षा के लिए जानी जाती थी। कांग्रेस के अलावा दक्षिणपंथी ताकतों के विरोधी के रूप में समाजवादी, कम्युनिस्ट पार्टी और अंबेडकर विचार के लोग जाने जाते थे। आम तौर पर इन समूहों की राजनीति को जन राजनीति के बतौर जाना जाता था। जन राजनीति के यह समूह और दल कार्यक्रम आधारित एकता उस दौर में कायम नहीं कर सके। 60 के दशक के उत्तरार्द्ध और 70 के दशक में ही उनके बीच में राजनीतिक मोर्चे की समझदारी विकसित हुई, फिर भी कांग्रेस को हराने के नाम पर जन संघ को मोर्चेबंदी से अलग नहीं किया गया और कोई स्थायी एकता भी इनके बीच में नहीं बन पायी। 60 के दशक के उत्तरार्द्ध और 70 के दशक के शुरूआती दौर में संसदीय राजनीति के बाहर दो विशिष्ट धारायें दिखीं। संसदीय राजनीति को नकार कर कम्युनिस्ट आंदोलन का एक धड़ा नक्सलबाड़ी क्रांतिकारी किसान आंदोलन से जाना गया तो दूसरी तरफ जय प्रकाश जी व्यवस्था विरोधी राजनीति के अगुवा बन कर उभरे और उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचार मिटाना, बेरोजगारी दूर करना, शिक्षा में क्रांति लाना आदि ऐसी चीजें हैं जो आज की व्यवस्था से पूरी नहीं हो सकतीं, क्योंकि वे इस व्यवस्था की ही उपज हैं। वे तभी पूरी हो सकती हैं जब सम्पूर्ण व्यवस्था बदल दी जाए और सम्पूर्ण व्यवस्था के परिवर्तन के लिए क्रांति, ‘‘सम्पूर्ण क्रांति’’ आवश्यक है। दूसरी तरफ नक्सलबाड़ी आंदोलन सरकार के क्रूर दमन का शिकार हुआ और जन समर्थन के अभाव में बिखर गया। बाद की कहानी उसकी भिन्न है।
सर्वोदय आंदोलन में रहते हुए भी जय प्रकाश जी राजनीतिक कर्म से कभी अलग नहीं हुए। बिहार के छात्र-युवा आंदोलन और उनके पक्ष में खड़े सर्वोदय ताकतों को लेकर जन सरकार बनाने की बात उन्होंने रखी। वर्ग विहीन समाज और उसमें दल विहीन राजनीति के लिए उनकी रणनीतिक प्रतिबद्धता बनी रही। लेकिन इंदिरा सरकार की निरंकुशता से निपटने के लिए आपातकाल का विरोध करते हुए बेमेल दलों और ताकतों के गठजोड़ से बनी जनता पार्टी की अवसरवादी सरकार ही वो बनवा पाये। जिससे लोगों का जल्द ही मोहभंग हो गया और 80 में कांग्रेस पुनः सत्ता में लौट आयी। 80 के दशक में पहचान की राजनीति ने ठोस आयाम ग्रहण करना शुरू किया और उस दौर के चर्चित किसान आंदोलन ने भी गैर राजनीतिक होने का दावा किया। 60-70 का दशक न केवल राजनीतिक बदलाव बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी बड़े बदलाव का साक्षी रहा है। धार्मिक उत्सव जो आम तौर पर क्षेत्रीय और विविधता पूर्ण थे उनके स्थान पर भारी भरकम उत्सव और भौंडे धार्मिक प्रदर्शनों में तब्दील हो गये। सामाजिक न्याय के संख्या बल की राजनीति से निपटने के लिए यही वह दौर है जब हिंदू अस्मिता गढ़ते हुए कांग्रेस दिखी। हिंदू वर्चस्व की राजनीति कांग्रेस को बाबरी मस्जिद ताला खुलवाने तक ले गयी। 80 के दशक में एक तरफ कांग्रेस मुस्लिम कट्टरपंथी ताकतों के सामने झुकी तो दूसरी तरफ हिंदू अस्मिता की राजनीति को भी परवान चढ़ाया। धर्मनिरपेक्षता तार्किक लौकिक शक्ति की जगह वोट की राजनीति बन गई। कांग्रेस की इस दो मुही राजनीति ने भाजपा की राजनीति को बढ़ने और मजबूत होने की जगह दी। 90 का दशक आते आते पूरा आर्थिक परिदृश्य बदल गया और मिश्रित अर्थव्यवस्था को बेदखल कर के नयी आर्थिक औद्योगिक नीति ने अपनी जगह बना ली। अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी को खुल कर खेलने का मौका मिला। बाजार की इस अर्थव्यवस्था का कोई सामाजिक सरोकार नहीं था और अपने मूल चरित्र में यह लोकतंत्र विरोधी है। फलतः लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमला तेज हो गया। लोकतंत्र का दायरा कम होता चला गया। सामाजिक सुरक्षा के मदों में भारी कटौती हुई। इसी उदार अर्थव्यवस्था की वजह से भारतीय अर्थव्यवस्था की नियामक शक्ति अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी और बड़े कारपोरेट हो गये हैं। परस्पर सहयोग के आधार पर अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी कारपोरेट और हिंदुत्व ने गठजोड़ कायम कर लिया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इसी गठजोड़ के महिमामंडित नेता हैं और भारत में अधिनायकवादी/फासीवादी तंत्र विकसित करने में लगे हैं।
जन राजनीति की कार्यदिशा:- यह निर्विवाद है कि जन राजनीति को बहुआयामी होना होगा और कई स्तर पर इसे काम करना पड़ेगा। इसका तात्कालिक और सर्वोच्च कार्यभार संघ और भाजपा की राजनीति को शिकस्त देना है। इसलिए इसे भाजपा विरोधी ताकतों के साथ सहयोग करना होगा। लेकिन हमारा यह सहयोग पारदर्शी और स्वतंत्र नीति पर आधारित होगा। हम किसी भी कारपोरेट परस्त दल के पिछलग्गू नहीं होंगे। जन मुद्दों के साथ हमें कई स्तर पर पहलकदमी लेनी होगी। जमीनी स्तर पर कामकाज को व्यवस्थित और विकसित करना होगा। रोजगार, सामाजिक सुरक्षा, सांप्रदायिक सद्भाव और राष्ट्रीयता के प्रश्न पर राष्ट्रीय हस्तक्षेप करते रहना होगा। देश बचाओ समूह का निर्माण उस दिशा में पहला कदम है। देश बचाओ अपने में बहु आयामी है। अंतर्राष्ट्रीय पूंजी से देश की संप्रभुता की रक्षा, विभाजनकारी शक्तियों से देश की एकता के लिए हमें क्षेत्रीय स्वायत्तता, सांस्कृतिक सामाजिक विविधता, नागरिक लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिए काम करते रहना होगा। सामाजिक न्याय की राजनीति संख्या बल पर जैसे तैसे सत्ता हासिल करने की जगह जाति विनाश और सांप्रदायिक सद्भाव, बंधुत्व के लिए होनी चाहिए। डा. अम्बेडकर का यही विचार था। अंतर्राष्ट्रीय पूंजी के खिलाफ राष्ट्रीय भाव की जागृति आज के दौर के राजनीतिक, सामाजिक, सास्कृतिक अंतरविरोध को हल करने की कुंजी है। ट्रेड यूनियन आंदोलन की तरह बहुचर्चित आज के दौर का किसान आंदोलन भी ठहराव का शिकार हो रहा है। देश बचाओ समूह को उनसे भी संवाद स्थापित करना चाहिए और उन कारणों पर तफसील से बात करनी चाहिए जिनकी वजह से किसान आंदोलन ठहराव का शिकार है। बगैर एक स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति बने किसान आंदोलन अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकता है। उसे भी जन राजनीति विकसित करने की दिशा में सहयोग देना चाहिए।
आज का दौर फासीवादी राजनीति का दौर है। इसलिए आरएसएस-भाजपा के खिलाफ बड़ी गोलबंदी की जरूरत है। बहरहाल संगठन और मोर्चे के बारे में क्रमशः नीति विकसित करनी होगी। देश बचाओ समूह में शामिल होने के लिए सभी लोकतांत्रिक व्यक्तियों, समूहों और संगठनों से वार्ता करनी पड़ेगी।
अखिलेन्द्र प्रताप सिंह